More Hindi Kahaniya  Posts
daachi


काट* ‘पी सिकंदर’ के मुसलमान जाट बाक़र को अपने माल की ओर लालच भरी निगाहों से तकते देखकर चौधरी नंदू पेड़ की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊंची घरघराती आवाज़ में ललकार उठा, “रे-रे अठे के करे है?*” और उसकी छह फुट लंबी सुगठित देह, जो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थी, तन गई और बटन टूटे होने का कारण, मोटी खादी के कुर्ते से उसका विशाल सीना और उसकी मज़बूत बाहें दिखाई देने लगीं।
बाक़र तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी-नुकीली दाढ़ी और शरअई मूँछों के ऊपर गढ़ों में धंसी हुई दो आंखों में पल भर के लिए चमक पैदा हुई और ज़रा मुस्कराकर उसने कहा – “डाची देख रहा था चौधरी, कैसी ख़ूबसूरत और जवान है, देखकर आँखों की भूख मिटती है।”
अपने माल की प्रशंसा सुनकर चौधरी नंदू का तनाव कुछ कम हुआ, प्रसन्न होकर बोला, ‘किसी साँड?’
“वह, परली तरफ़ से चौथी।” बाक़र ने संकेत करते हुए कहा।
ओकांह के एक घने पेड़ की छाया में आठ-दस ऊँट बँधे थे, उन्हीं में वह जवान सांडनी अपनी लंबी, सुंदर और सुडौल गर्दन बढ़ाए घने पत्तों में मुंह, मार रही थी। माल मंडी में, दूर जहां तक नज़र जाती थी बड़े-बड़े ऊंचे ऊंटों, सुंदर सांडनियों, काली-मोटी बेडौल भैंसों, सुंदर नगौरी सींगों वाले बैलों और गायों के सिवा कुछ न दिखाई देता था। गधे भी थे, पर न होने के बराबर अधिकांश तो ऊंट ही थे। बहावल नगर के मरूस्थल में होने वाली माल मंडी में उनका आधिक्य था भी स्वाभाविक। ऊंट रेगिस्तान का जानवर है। इस रेतीले इलाके में आमदरफ्त खेती- बाड़ी और बारबरादारी का काम उसी से होता है। पुराने समय में गाय दस- दस और बैल पंद्रह- पंद्रह रुपए में मिल जाते थे, तब भी अच्छा ऊंट पचास से कम में हाथ न आता था और अब भी जब इस इलाके में नहर आ गई है, पानी की इतनी किल्लत नहीं रही, ऊंट का महत्व कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा है। सवारी के ऊंट 2- 2 सौ से 3- 3 सौ तक पा जाते हैं और बाही तथा बारबरदारी के भी अस्सी सौ से कम में हाथ नहीं आते।
तनिक और आगे बढ़कर बाकर ने कहा ‘सच कहता हूं चौधरी, इस जैसी सुंदरी सांडनी मुझे सारी मंडी में दिखाई नहीं दी।’
हर्ष से नंदू का सीना दुगना हो गया बोला, ‘आ एक ही के, इह तो सगली फूटरी है। हूं तो इन्हें चारा फलंूसी निरिया करूं।’
धीरे से बाकर ने पूछा, ‘बेचोगे इसे?’
नंदू ने कहा ‘इठई बेचने लई तो लाया हूं।’
‘तो फिर बताओ कितने का दोगे?’
नंदू ने नख से शिख तक बाकर पर एक दृष्टि डाली और हंसते हुए बोला, ‘तन्ने चाही जै का तेरे धनी बेई मोल लेसी?’
‘मुझे चाहिए’ बाकर ने दृढ़ता से कहा।
नंदू ने उपेक्षा से सिर हिलाया। इस मजदूर की यह बिसात कि ऐसी सुंदर सांडनी मोल ले। बोला, तू की लेसी?
बाकर की जेब में पड़े डेढ़ सौ के नोट जैसे बाहर उछल पडऩे के लिए व्यग्र हो उठे। तनिक जोश के साथ उसने कहा, ‘तुम्हें इससे क्या, कोई ले तुम्हें तो अपनी कीमत से गरज है, तुम मोल बताओ?’
नंदू ने उसके जीर्ण- शीर्ण कपड़ों, घुटनों से उठे हुए तहमद और जैसे नूह के वक्त से भी पुराने जूते को देखते हुए टालने के विचार से कहा, ‘जा जा तू इशी- विशी ले आई, इंगो मोल तो आठ बीसों सू घाट के नहीं।’
पल-भर के लिए बाक़र के थके हुए व्यथित चेहरे पर आह्लाद की रेखा झलक उठी। उसे डर था कि चौधरी कहीं ऐसा मोल न बता दे, जो उसकी बिसात से ही बाहर हो, पर जब अपनी जबान से ही उसने 160 रुपए जो बताए, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। 150 रुपए तो उसके पास थे ही। यदि इतने पर भी चौधरी न माना, दो दस रुपए वह उधार कर लेगा। भाव- ताव तो उसे करना आता न था। झट से उसने डेढ़ सौ के नोट निकाले और नंदू के आगे फेंक दिए। बोला- ‘गिन लो इनसे अधिक मेरे पास नहीं, अब आगे तुम्हारी मर्ज़ी।’
नंदू ने अनमने मन से नोट गिनने शुरू किए, पर गिनती ख़त्म करते न करते उसकी आंखें चमक उठीं। उसने तो बाक़र को टालने के लिए मूल्य 160 रुपए बता दिया था, नहीं मंडी में अच्छी से अच्छी डाची डेढ़ सौ में मिल जाती और इसके तो 140 रुपए पाने का ख़याल भी उसे न था। पर शीघ्र ही मन के भावों को छिपाकर और जैसे बाक़र पर अहसान का बोझ लादते हुए नंदू बोला, ‘सांड तो मेरी दो सौ की है, पण जा, सग्गी मोल मिया तन्ने दस छांडिय़ा।’ और यह कहते-कहते उठकर उसने सांडऩी की रस्सी बाक़र के हाथ में दे दी।
क्षण-भर के लिए उस कठोर व्यक्ति का जी भर आया। यह सांडऩी उसके यहां ही पैदा हुई और पली थी। आज पाल पोसकर उसे दूसरे के हाथ में सौंपते हुए उसके मन की कुछ ऐसी दशा हुईं जो लड़की को ससुराल भेजते समय पिता की होती है। जरा कांपती आवाज में, स्वर को तनिक नर्म करते हुए, उसने कहा, ‘आ सांड सीरी रहेड़ी तूं इन्हें रेहड़ में गेर दई।’ ‘ऐसे ही, जैसे ससुर दामाद से कह रहा हो- मेरी लड़की लाड़ों पली है, देखना इसे कष्ट न देना।’
उल्हास के पंखों पर उड़ते हुए बाक़र ने कहा, “तुम ज़रा भी चिंता न करो, मैं इसे अपनी जान के साथ रखूंगा।
नंदू ने नोट अंटी में संभालते हुए, जैसे सूखे हुए गले को जरा तर करने के लिए, घड़े में मिट्टी का प्याला भरा। मंडी में चारों ओर धूल उड़ रही थी। शहरों की माल मंडियों में भी- जहां बीसियों अस्थायी नल लग जाते हैं और सारा- सारा दिन छिड़काव होता रहता है- धूल की कमी नहीं होती, फिर रेगिस्तान की मंडी पर तो धूल ही का साम्राज्य था। गन्नेवाले को गड़ेरियों पर, हलवाई के हलवे और जलेबियों पर और खोंचेवाले को दही बड़े पर, सब जगह धूल का पूर्णाधिकार था। घड़े का पानी टांचियों द्वारा नहर से लाया गया था, पर यहां आते- आते वह कीचड़ जैसा गंदला हो जाता था। नंदू का ख्याल था कि निथरने पर पियेगा, पर गला कुछ सूख रहा था। एक ही घूंट में प्याले को खत्म करके नंदू ने बाकर से भी पानी पीने के लिए कहा। बाकर आया था, तो उसे गजब की प्यास लगी हुई थी, पर अब उसे पानी पीने की फुर्सत कहां? वह रात होने से पहले- पहले गांव पहुंचना चाहता था। डाची की रस्सी पकड़े हुए वह धूल को चीरता हुआ- सा चल पड़ा।
बाक़र के दिल में बड़ी देर से एक सुंदर और युवा डाची खरीदने की लालसा थी। जाति से वह कमीन था। उसके पूर्वज कुम्हारों का काम करते थे, किंतु उसके पिता ने अपना पैतृक काम छोड़कर मजदूरी करना ही शुरु कर दिया था। उसके बाद बाकर भी इसी से अपना और अपने छोटे से कुटुंब का पेट पालता आ रहा था। वह काम अधिक करता हो, यह बात न थी। काम से उसने सदैव जी चुराया था। चुराता भी क्यों न, जब उसकी पत्नी उससे दुगुना काम करके उसके भार को बंटाने और उसे आराम पहुंचाने के लिए मौजूद थी। कुटुंब बड़ा न था- एक वह, एक उसकी पत्नी और एक नन्हीं सी बच्ची फिर किसलिए वह जी हलकान करता। पर क्रूर और बेपीर विधाता- उसने उसे इस विस्मृति से, सुख की उस नींद से जगाकर अपना उत्तरदायित्व समझने पर बाधित कर दिया। उसे बता दिया कि जीवन में सुख ही नहीं, आराम ही नहीं, दुख भी है, परिश्रम भी है।
पांच वर्ष हुए उसकी वही आराम देने वाली प्यारी पत्नी सुंदर गुडिय़ा-सी लड़की को छोड़कर परलोक सिधार गई थी। मरते समय, अपनी सारी करुणा को अपनी फीकी और श्रीहीन आंखों में बटोरकर अपने बाकर से कहा था, ‘मेरी रजिया अब तुम्हारे हवाले है, इसे कष्ट न होने देना।’ इसी एक वाक्य ने बाकर के समस्त जीवन के रूप को पलट दिया था। उसकी मृत्यु के बाद ही वह अपनी विधवा बहन को उसके गांव से ले आया था और अपने आलस्य तथा प्रमाद को छोड़कर अपनी मृत पत्नी की अंतिम अभिलाषा को पूरा करने में संलग्न हो गया था।
वह दिन-रात काम करता था ताकि अपनी मृत पत्नी की उस धरोहर को, अपनी उस नन्ही सी गुडिय़ा को, भांति- भांति की चीजें लाकर प्रसन्न रख सके। जब भी कभी वह मंडी को आता, तो नन्ही सी रजिया उसकी टांगों से लिपट जाती और अपनी बड़ी- बड़ी आंखें उसके गर्द से अटे हुए चेहरे पर जमाकर पूछती, ‘अब्बा, मेरे लिए क्या लाए हो?’ तो वह उसे अपनी गोद में ले लेता और कभी मिठाई और कभी खिलौनों से उसकी झोली भर देता। तब रजिया उसकी गोद में से उतर जाती और अपनी सहेलियों को अपने खिलौने या मिठाने दिखाने के लिए भाग जाती। यही गुडिय़ा जब 8 वर्ष की हुई, तो एक दिन मचलकर अपने अब्बा से कहने लगी, ‘अब्बा, हम तो डाची लेंगे, अब्बा हमें डाची ले दो।’ भोली भाली निरीह बालिका। उसे क्या मालूम कि वह एक विपन्न साधनहीन मजदूर की बेटी है, जिसके लिए डाची खरीदना तो दूर रहा, डाची की कल्पना करना भी पाप है, रूखी हंसी हंसकर बाकर ने उसे अपनी गोद में ले लिया और बोली, ‘रज्जो, तू तो खुद डाची है।’ पर रजिया न मानी। उस दिन मशीरमल अपनी सांडऩी पर चढ़कर अपनी छोटी लड़की को अपने बागे बैठाए दो- चार मजदूर लेने के लिए अपनी इसी काट में आए थे।
तभी रजिया के नन्हें- से मन में डाची पर सवार होने की प्रबल आकांक्षा पैदा हो उठी थी, और उसी दिन से बाकर की रही- सही अकर्मण्यता भी दूर हो गई थी।
उसने रजिया को टाल तो दिया था, पर मन ही मन उसने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अवश्य रजिया के लिए सुंदर सी डाची मोल लेगा। उसी इलाके में जहां उनकी आय की औसत सालभर में तीन आने रोजाना भी न होती थी, अब आठ- दस आने हो गई। दूर- दूर से गांवों से अब वह मजदूरी करता। कटाई के दिनों में वह दिन- रात काम करता फसल काटता, दाने निकालता, खलिहानों में अनाज भरता, नीरा डालकर भूसे के कूप बनाता। बिजाई के दिनों में...

हल चलाता, क्यारियां बनाता, बिजाई करता। उन दिनों उसे पांच आने से लेकर आठ आने रोजाना तक मजदूरी मिल जाती। जब कोई काम न होता तो प्रात: उठकर, आठ कोस की मंजिल मारकर मंडी जा पंहुचता और आठ- दस आने की मजदूरी करके ही घर लौटता। उन दिनों में वह रोज छह आने बचाता आ रहा था। इस नियम में उसने किसी तरह की ढील न होने दी थी। उसे जैसे उन्माद सा हो गया था। बहन कहती- ‘बाकर अब तो तुम बिलकुल ही बदल गए हो। पहले तो तुमने कभी ऐसी जी तोड़कर मेहनत न की थी।’
बाकर हंसता और कहता- ‘तुम चाहती हो, मैं आयु पर निठल्ला रहूं?’
बहन कहती – ‘निकम्मा बैठने को तो मैं नहीं कहती, पर सेहत
गंवाकर रूपया जमा करने की सलाह भी नहीं दे सकती।’
ऐसे अवसर पर सदैव बाकर के सामने उसकी मृत पत्नी का चित्र खिंच जाता, उसकी अंतिम अभिलाषा उसके कानों में गूंज जाती। वह आंगन में खेलती हुई रजिया पर एक स्नेहभरी दृष्टि डालता और विषाद से मुस्कराकर फिर अपने काम में लग जाता था। और आज डेढ़ वर्ष से कड़े परिश्रम के बाद वह अपनी चिरसंचित अभिलाषा पूरी कर सका था। उसके एक हाथ में सांडऩी की रस्सी थी और नहर के किनारे- किनारे वह चला जा रहा था।
सांझ की बेला थी। पश्चिम की ओर डूबते सूरज की किरणें धरती को सोने का अंतिम दान कर रही थीं। वायु की ठंडक आ गई थी, और कहीं दूर खेतों में टीटिहरी टीहूं- टीहूं करती उड़ रही थी। बाकर के मन में अतीत की सब बातें एक एक करके आ रही थीं। इधर- उधर कभी- कभी कोई किसान अपने ऊंट पर सवार जैसे फुदकता हुआ निकल जाता था और कभी- कभी खेतों से वापस आने वाले किसानों के लड़के बैलगाड़ी में रखे हुए घास पट्ठे के गट्ठों पर बैठे, बैलों को पुचकारते, किसी गीत का एक आध बंद गाते या बैलगाड़ी के पीछे बंधे हुए चुपचाप चले आने वाले ऊंटों की थूथनियों से खेलते चले जाते थे।
बाकर ने, जैसे स्वप्न से जागते हुए, पश्चिम की ओर अस्त होते हुए अंशुमाली की ओर देखा, फिर सामने की ओर शून्य में नजर दौड़ाई। उसका गांव अभी बड़ी दूर था। पीछे की ओर हर्ष से देखकर और मौनरूप से चली आने वाली सांडऩी को प्यार से पुचकारकर वह और भी तेजी से चलने लगा- कहीं उसके पहुंचने से पहले रजिया सो न जाए, इसी विचार से।
मशीरमल की काट नजर आने लगी। यहां से उसका गांव समीप ही था। यही कोई दो कोस। बाकर की चाल धीमी हो गई और उसके साथ ही कल्पना की देवी अपनी रंग- बिरंगी तूलिका से उसके मस्तिष्क के चित्रपट पर तरह- तरह की तस्वीरें बनाने लगी। बाकर ने देखा, उसके घर पहुंचते ही नन्ही रजिया आह्लाद से नाचकर उसकी टांगों से लिपट गई और फिर डाची को देखकर उसकी बड़ी- बड़ी आंखें आश्चर्य और उल्लास से भर गई हैं। फिर उसने देखा, वह रजिया को आगे बैठाए सरकारी खाले (नहर) के किनारे- किनारे डाची पर भागा जा रहा है। शाम का वक्त है, ठंडी- ठंडी हवा चल रही है और कभी- कभी कोई पहाड़ी कौवा अपने बड़े- बड़े पंख फैलाए और अपनी मोटी आवाज से दो एक बार कांव- कांव करके ऊपर से उड़ता चला जाता है। रजिया की खुशी का पारावार नहीं। वह जैसे हवाई जहाज में उड़ी जा रही है, फिर उसके सामने आया कि वह रजिया को लिए बहावलनगर की मंडी में खड़ा है। नन्हीं रजिया मानो भौचक्की सी है। हैरान और आश्चर्यान्वित- सी चारों ओर अनाज के इन बड़े- बड़े ढेरों, अनगिनत छकड़ों और हैरान कर देने वाली चीजों को देख रही है। बाकर साह्लाद उसे सबकी कैफियत दे रहा है। एक दुकान पर ग्रामोफोन बजने लगता है। बाकर रजिया को वहां ले जाता है। लकड़ी के इस डिब्बे से किस तरह गाना निकल रहा है, कौन इसमें छिपा गा रहा है, यह सब बातें रजिया की समझ में नहीं आती, और यह सब जानने के लिए उसके मन में जो कौतुहल और जिज्ञासा है, वह उसकी आंखों से टपकी पड़ती है।
वह अपनी कल्पना में मस्त काट के पास से गुजरा जा रहा था कि सहसा कुछ विचार आ जाने से रूका और काट में दाखिल हुआ।
मशीरमल की काट भी कोई बड़ा गांव न था। इधर से सब गांव ऐसे ही हैं। ज्यादा हुए तो तीस छप्पर हो गए। कडिय़ों की छत का या पक्की ईंटों का मकान इस इलाके में अभी नहीं। खुद बाकर की काट में पंद्रह घर थे। घर क्या झुग्गियां थीं। सिरकियों के खेमे जिन्हें झोपडि़य़ों का नाम भी न दिया जा सकता था। मशीरमल की काट भी ऐसे ही 20-25 झुग्गियों की बस्ती थी। केवल मशीरमल की निवास स्थान कच्ची ईंटों से बना था। पर छत उस पर भी छप्पर की ही थी। बाकर नानक बढ़ई की झुग्गी के सामने रूका। मंडी जाने से पहले वह यहां डांची का गदरा (पलान) बनाने के लिए दे गया था। उसे ख्याल आया कि यदि रजिया ने सांडऩी पर चढऩे की जिद की, तो वह उसे कैसे टाल सकेगा। इसी विचार से वह पीछे मुड़ आया था। उसने नानक को दो- एक आवाजें दीं। अंदर से शायद उसकी पत्नी ने उत्तर दिया- ‘घर में नहीं हैं, मंडी गए हैं।’
बाकर का दिल बैठ गया। वह क्या करे, यह न सोच सका। नानक यदि मंडी गया है तो गदरा क्या खाक बनाकर गया होगा। फिर उसने सोचा शायद बनाकर रख गया हो। उससे उसे कुछ सांत्वना मिली। उसने फिर पूछा- मैं सांडऩी का पलान बनाने के लिए दे गया था, वह बना या नहीं।जवाब मिला- हमें मालूम नहीं।
बाकर का आधा उल्लास जाता रहा। बिना गदरे के वह डाची को क्या लेकर जाए। नानक होता तो उसका गदरा चाहे न बना सकता, कोई दूसरा ही उससे मांगकर ले जाता। यह विचार आते ही उसने सोचा- चलो मशीरमल से मांग ले। उनके तो इतने ऊंट रहते हैं, कोई न कोई पुराना पलान होगा ही। अभी उसी से काम चला लेंगे। तब तक नानक नया गदरा तैयार कर देगा। यह सोचकर वह मशीरमल के घर की ओर चल पड़ा।
अपनी मुलाजमत के दिनों में मशीरमल साहब ने पर्याप्त धनोपार्जन किया था। जब इधर नहर निकली, तो उन्होंने अपने पद और प्रभाव के बल पर रियासत में कौडिय़ों के मोल कई मुरब्बे जमीन ले ली थी। अब नौकरी से अवकाश ग्रहण कर यहीं आ रहे थे। राहक रखे हुए थे, आय खूब थी और मजे से जीवन व्यतीत हो रहा था। अपनी चौपाल में एक तख्तपोश पर बैठे वे हुक्का पी रहे थे- सिर पर श्वेत साफा, गले में श्वेत कमीज, उस पर श्वेत जाकेट और कमर में दूध जैसे रंग का तहमद। गर्द से अटे हुए बाकर को सांडऩी की रस्सी पकड़े आते देखकर उन्होंने पूछा- कहो बाकर, किधर से आ रहे हो?
बाकर ने झुककर सलाम करते हुए कहा- मंडी से आ रहा हूं मालिक।
‘यह डाची किसकी है?’
‘मेरी ही है मालिक, अभी मंडी से ला रहा हूं।’
‘कितने की लाए हो?’
बाकर ने चाहा, कह दे आठ बीसी की लाया हूं। उसके ख्याल में ऐसी सुंदर डाची 200 में भी सस्ती थी, पर मन न माना बोला- ‘हुजूर, मांगता तो 160 रुपए था, पर साढ़े सात बीसी ही में ले आया हूं।’
मशीरमल ने एक नजर डाली वे स्वयं अर्से से एक सुंदर सी डाची अपनी सवारी के लिए लेना चाहते थे। उनके डाची तो थी, पर पिछले वर्ष उसे सीमक हो गया था और यद्यपि नील इत्यादि देने से उसका रोग तो दूर हो गया था पर उसकी चाल में वह मस्ती, वह लचक न रही थी। यह डाची उनकी नजरों में जंच गई- क्या सुंदर और सुडौल अंग है, क्या सफेदी मायल भूरा- भूरा रंग है, क्या लचलचाती लंबी गर्दन है। बोले- ‘चलो हमसे आठ बीसी ले तो हमें एक डाची की जरूरत है, दस तुम्हारी मेहनत के रहे।’
बाकर ने फीकी हँसी से साथ कहा – ‘हजूर, अभी तो मेरा चाव भी पूरा नहीं हुआ।’
मशीरमल उठकर डाची की गर्दन पर हाथ फेरने लगे- वाह क्या असील जानवर है। प्रकट बोले, “चलो, पांच और ले लेना।”
और उन्होंने आवाज दी – ‘नूरे, अरे ओ नूरे।’
नौकर भैंसों के लिए पट्ठे कतर रहा था। गंडासा हाथ ही में लिए भाग आया। मशीरमल ने कहा, यह डाची ले जाकर बांध दो। 165 में, कहो कैसी है?
नूरे ने हतबुद्धि से खड़े बाकर के हाथ से रस्सी ले ली। और नख से शिख तक एक नजर डाली पर डालकर बोला, ख़ूब जानवर है यह कहकर नौहरे की ओर चल पड़ा।
तब मशीरमल ने अंटी से 60 रुपए के नोट निकालकर बाकर के हाथ में देते हुए मुस्कुराकर कहा, अभी एक राहक देकर गया है, शायद तुम्हारी ही किस्मत के थे। अभी यह रखो बाकी की एक – दो महीने तक पहुंचा दूंगा। हो सकता है तुम्हारी किस्मत से पहले ही आ जाए। और बिना कोई जवाब सुने वे नौहरे की ओर चल पड़े। नूरा फिर चारा कतरने लगा था। दूर ही से आवाज देकर उन्होंने कहा, ‘भैंसे का चारा रहने दो, पहले डाची के लिए गवारे का नीरा कर डाल, भूखी मालूम होती है।’
और पास जाकर सांडनी की गर्दन सहलाने लगे।
कृष्णपक्ष का चांद अभी उदय नहीं हुआ था। विजन में चारों ओर कुहासा छा रहा था। सिर पर दो एक तारे निकल आए थे। और दूर बबूल और ओकांह के वृक्ष बड़े- बड़े काले सियाह धब्बे बन रहे थे। फोग की एक झाड़ी की ओट में अपनी काट के बाहर बाकर बैठा उस क्षीण प्रकाश को देख रहा था, जो सरकंड़ों से छिन- छिनकर उसके आंगन से आ रहा था। जानता था रजिया जागती होगी। उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। वह इस इंतजार में था कि दिया बुझ जाए, रजिया सो जाय तो वह चुपचाप अपने घर में दाख़िल हो।

– उपेन्द्रनाथ अश्क
#

काट = दस-बीस सिरकियों के ख़ैमों का छोटा-सा गाँव!

रे-रे अठे के करे है? = अरे, तू यहाँ क्या कर रहा है?

...
...



Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Punjabi Graphics

Indian Festivals

Love Stories

Text Generators

Hindi Graphics

English Graphics

Religious

Seasons

Sports

Send Wishes (Punjabi)

Send Wishes (Hindi)

Send Wishes (English)