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ganeshi ki katha


कहानी की शुरुआत कैसे की जानी चाहिए ? मैं इस कहानी की शुरुआत ‘वंस अपान अ टाइम, देयर लिव्ड अ पर्सन नेम्ड गनेशी’ वाले अंदाज़ में कर सकता हूँ । या मैं कहानी की शुरुआत तिरछे अक्षरों ( इटैलिक्स ) में लिखे कुछ धमाकेदार वाक्यों से कर सकता हूँ । मसलन —
“नींद और जागने की सीमा-रेखा पर स्थित है यह कहानी । अंत और शुरुआत के बीच की संधि है यह कहानी । ढलती हुई शाम और रात के बीच एक ऐसा समय आता है जब धरती कुछ कहना चाहती है , आकाश कुछ सुनना चाहता है । वही कथन है गनेशी की यह कहानी ।”
या मैं कहानी के शुरू में ही नींद और सपनों का ‘हेडी कॉकटेल’ बना
कर पाठकों को पिला सकता हूँ जिसे पीते ही पाठक नशे में आ जाएँ ।
मसलन —
“कुछ कहानियाँ कहानियाँ नहीं होतीं । अधमिटे अक्षर होते हैं । अस्फुट ध्वनियाँ होती हैं । गनेशी गहरी नींद में कोई सपना देख रहा होता । सपने में एक आदिम जंगल है । हवा में सड़ रहे पत्तों की गंध है । दूर कहीं एक नारी स्वर कोई भूला हुआ गीत गा रहा है । अरे, यह आवाज़ तो उसकी पत्नी की है । बदहवास-सा गनेशी उस आवाज़ का पीछा करता है । उसे एक खंडहर नज़र आता है । उसमें पीली रोशनी है । किंतु जैसे ही गनेशी वहाँ पहुँचता है , अचानक वह रोशनी बुझ जाती है । गीत बंद हो जाता है । भुतहा अँधेरे के अथाह समुद्र में गनेशी किसी थके हुए डूबते तैराक-सा हाथ-पैर मारने लगता है । अचानक उसकी नींद टूट जाती है । या शायद पहले वाली बात कल्पना में सोची गई थी । अब वह नींद में है । उसके चारो ओर काली धुँध है । धुँध के उस पार उसकी पत्नी हँस रही है — मुझे पकड़ो तो जानूँ । या शायद गनेशी क़िस्तों में सपने देख रहा है । अब अगली क़िस्त — भुतहा खंडहर घुप्प अँधेरे की चादर ओढ़े सोया हुआ है । गनेशी का दिल धक्-धक् , धक्-धक् कर रहा है । तभी दिल को दहला देने वाली एक नारी की चीख़ उसका ख़ून जमा देती है …”
या मैं कहानी की शुरुआत एक अद्भुत नॉस्टेल्जिया और फ़्लैश-बैक से कर सकता हूँ जिसे पढ़ते ही पाठक अतीत में खो जाएँ । मसलन —
“तो उस गाँव में एक घर है । उसमें एक बच्चा रहता है । वह तितलियाँ और जुगनू पकड़ता है । चिड़ियों के पंख इकट्ठा करता है । कुत्ते-बिल्लियों के बच्चों से खेलता है । इन्द्रधनुष देख कर किलकता है । पुआल के ढेर में छिप जाता है । गाँव के कुएँ पर नहाता है । एड़ियाँ उठा कर गाँव के मंदिर की घंटियाँ बजाता है । साइकिल के टायर लुढ़काता है । कंचे और गिल्ली-डंडा खेलता है । गाँव के तालाब में चपटे पत्थर से ‘ छिछली ‘ खेलता है । गाँव के पास बहती नदी में मछलियाँ पकड़ने जाता है । गाँव के आम , अमरूद और जामुन के पेड़ों पर चढ़ कर उनके फल खाता है । अपने हम-उम्र साथियों के साथ पतंग उड़ाता है । देखिए, अब वह हाथ में एक लम्बी टहनी लिए चला जा रहा है । उसके दूसरे हाथ में एक लूटी हुई पतंग है । उसके हाथ-पैर धूल से सने हैं किंतु उसके चेहरे पर विजेता की मुस्कान है । दूर जाती हुई उसकी पीठ बड़ी जानी-पहचानी लग रही है । एक और पतंग लूटता हुआ अब वह आँखों से ओझल हो गया है । यही हमारा नायक गनेशी है ।”
या मैं कहानी की शुरुआत इस तरह कर सकता हूँ —
“दरअसल यह पूरी कहानी काल्पनिक है । इस कहानी का नायक गनेशी और अन्य सभी पात्र काल्पनिक हैं । इन काल्पनिक पात्रों की सभी स्थितियाँ काल्पनिक हैं । इन सभी घटनाओं के घटने की सभी जगहें काल्पनिक हैं । किसी भी जीवित व्यक्ति , वास्तविक घटना या असली जगह से इस कहानी का कोई लेना-देना नहीं है । यदि ऐसा कोई साम्य पाया जाता है तो यह महज़ आकस्मिक है , इत्तिफ़ाक़ है । असल में यह पूरी कहानी इतनी काल्पनिक है कि अक्सर इसके वास्तविक होने का भ्रम हो जाता है । यह भ्रम ही इस कहानी की जान है । यह भ्रम ही इसे हमारा-आपका जीवन बना देता है ।”
या फिर मैं यह कहानी इस तरह शुरू कर सकता हूँ —
“ईसा की मृत्यु के बाद की इक्कीसवीं सदी के पंद्रहवे वर्ष के चौथे माह की अट्ठाइसवीं तारीख़ को हमारे नायक गनेशी के साथ यह घटना घटी …”
तो गनेशी हमारे गाँव का डाकिया है । उम्र लगभग पैंतीस की होगी लेकिन अब तक उसकी शादी नहीं हुई । सिर के बीच में से थोड़ा गंजा होता जा रहा है । कनपटी के कुछ बाल पकने भी लगे हैं । हँसी के कुछ प्राचीन क़तरे उसके चेहरे की लकीरों में ऐसे जमा हैं जैसे मंगल ग्रह पर नहरों जैसे सूखे गड्ढों के उपग्रह द्वारा भेजे गए चित्र देखकर वैज्ञानिक यह अंदाज़ा लगाते हैं कि कभी वहाँ पानी रहा होगा । कुछ लोगों का मानना है कि गनेशी बचपन में भी ऐसा ही रहा होगा । शायद पैदा भी ऐसा ही हुआ होगा । क्या वह पिछले जन्म में भी ऐसा ही दिखता था ?
दरअसल गनेशी इसी गाँव का रहने वाला है । दसवीं पास करके यहीं डाकिया लग गया है । गाँव की सीमा पर केले के पेड़ों से घिरा उसका घर है । हालाँकि देखने पर लगता है जैसे उसका घर पंख लगा कर उड़ने को बेताब हो । जैसे उसका घर गाँव के मन में एक सुंदर-सी कल्पना हो ।
तो गनेशी को कोई डाक-बाबू , कोई चिट्ठी-बाबू और कोई डाकिया-बाबू कह कर बुलाता है । पास के क़स्बे के डाकघर से गनेशी गाँव की डाक लेकर रोज़ाना आता है । छुट्टी और रविवार का दिन छोड़ कर । गाँव में किसी का मनीआर्डर हो , चिट्ठी हो , रजिस्ट्री हो या पार्सल हो — सब बाँटने की ज़िम्मेदारी गनेशी की है ।
अपने कान के ऊपर क़लम खोंसे हुए गनेशी किसी को चिट्ठी पढ़कर सुना रहा है , किसी को मनीआर्डर के पैसे दे कर काग़ज़ पर उससे अँगूठा लगवा रहा है । पसीने से तरबतर गनेशी किसी के दरवाज़े पर रुककर लोटा-दो लोटा पानी पी कर अपनी प्यास बुझा रहा है । वह बरगद के पेड़ के पास बने चबूतरे से अपनी साइकिल टिकाकर चबूतरे पर सुस्ता रहा है । यह सब उसका रोज़ का काम है । सब का हाल-चाल पूछता हुआ गनेशी साइकिल की घंटी टुनटुनाता हुआ चला जा रहा है ।
गाँव की सारी गाय-भैंसें और बकरियाँ गनेशी को पहचानती हैं । उसे देखते ही गाँव के बैलों की आँखों में भी ‘ राम-राम भैया ‘ का भाव आ जाता है । गाँव के कुत्ते उसकी साइकिल के साथ चलते हुए उसे ‘ गार्ड-ऑफ़-ऑनर ‘ जैसा कुछ देते प्रतीत होते हैं ।
गाँव के लोगों के लिए गनेशी उन्हें गाँव के बाहर की दुनिया से जोड़ता है। उनके और उनके प्रियजनों के बीच वह एक संदेशवाहक का काम करता है । गाँववालों के बीच उसकी एक जगह है । उसका एक दर्ज़ा है ।
गनेशी की शादी नहीं हुई तो क्या हुआ , कल्पना में वह अपनी पत्नी की छवि गढ़ लेता है । उससे हँसी-ठिठोली करता है । रूठना-मनाना चलता है । बतरस होता है ।
गाँव भर की चिट्ठियाँ बाँटने के बाद वह बरगद के पास वाले चबूतरे की छाँह में आराम से पसर जाता है । सिर पर गमछा लपेटे आते-जाते...

लोग ‘ राम-राम चिट्ठी बाबू ‘ कहते हैं । गनेशी कभी हाथ हिला देता है , कभी ख़यालों में गुम रहता है । कभी जागती आँखों से सपने देखता है । कभी नींद की ख़ुमारी में पड़ा रहता है ।
तो हमारा ख़याली राम गनेशी अपने समय की नदी में बह रहा है । उसके चारो ओर लौह-मृदंग-सी बजती हुई कर्कश दुपहरी है , लेकिन उसके सपने में शोख़ी घुली हुई है । उसके भीतर बारिश की फुहार छाई हुई है । सपने में वह सीटी बजाता हुआ मुकेश का कोई मस्त गीत गुनगुना रहा है — ” रुक जा ओ जाने वाली रुक
जा , मैं तो राही तेरी मंज़िल का …। ”
अब वह घर पर है । उसकी पत्नी उसके पैर दबा रही है । उसके तन-मन की गाँठें खुलती जा रही हैं ।
“आज उदास क्यों लग रही हो ? ” गनेशी पूछता हैं । पूर्णिमा का चाँद भी उदास हो सकता है, पत्नी को देखकर वह पहली बार सोचता है । कहीं उसकी पत्नी के मन के आकाश में कोई कोई झंझावात , कोई चक्रवात तो नहीं आ रहे ?
“चलो , आज तुमको सिनेमा दिखाता हूँ । ” वह कहता है । पत्नी बच्चे-सी खुश हो जाती है । गनेशी के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है । पानी पर चलने का रहस्य यह जानने में है कि पानी में पत्थर कहाँ-कहाँ है — वह सोचता है ।
वह एक ठहरा हुआ लम्बा पल है ।
धरती से आकाश तक फैला हुआ ।
तन से मन तक फैला हुआ ।
गतिहीन । शोरहीन । शब्दहीन ।
चुप्पी के ताल में गनेशी ने एक छोटा-सा कंकड़ फेंका । वह बोला — “लीना ।” पत्नी बोली — ” हूँ । ” गनेशी बोला — ” तुम मेरी हो ।” पत्नी ने कहा — ” मैं तुम्हारी हूँ । ” गनेशी ने पूछा — ” तुम्हारा नाम क्या है ? ” पत्नी बोली — ” लीना । ” गनेशी ने कहा — ” करीना ? ” पत्नी बोली — ” ल से लीना ।”
गनेशी बोला — “क से करीना ? ” पत्नी ने पूछा — ” बताओ, मेरा नाम क्या है ? ”
गनेशी बोला — “जानेमन । ” पत्नी बोली –” धत् ! ” गनेशी कुछ नहीं बोला । उसने पत्नी को चूम लिया । पत्नी लाज की चाँदनी में सिमटकर छुई-मुई हो गई ।
गनेशी को फिर से शरारत सूझती है । वह धीरे से पत्नी की देह में गुदगुदी कर देता है । पत्नी के शरीर का अंग-अंग हँसने लगता है । उसके गले के नीचे की स्वस्थ, गोरी गोलाइयाँ थिरकने लगती हैं । वह पत्नी को बाँहों में भर लेता है । पके हुए शहतूत-सी मीठी और मादक है उसकी देह से उठती गंध । उसका मन किशोर कुमार अंदाज़ में गा उठता है — ” रात कली इक ख़्वाब में आई , और गले का हार बनी … ।”
गनेशी चाहता है कि यह पल यहीं रुक जाए । इस समय दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत स्त्री उसके पास है । उसकी छाती के बालों में है । उसकी उँगलियों के स्पर्श में है । उसके होठों के स्वाद तले है । उसकी शिराओं और धमनियों में है । जैसे सबसे ज़्यादा चमकता हुआ नक्षत्र उसके आकाश में है । उसकी पत्नी एक गहरी नीली झील है । अब वह उसमें डूब गया है । वहाँ आग की लपटें हैं । अब वह उनमें खो गया है ।
उसके सामने एक सुंदर पेंटिंग है । अब वह उस पेंटिंग में प्रवेश कर गया है । उसकी पत्नी छिपे हुए ख़ज़ाने का प्रवेश-द्वार है । अब वह उस ख़ज़ाने में गुम हो गया है । अजंता-एलोरा की गुफ़ाओं में पहली बार आए किसी पर्यटक-सा विस्मित और अवाक् । बिन पिए ही अब वह नशे में है । सपने के भीतर कितनी हसीन लग रही है उसकी दुनिया ।
जैसे जीवन के निर्जन बियाबान में उसकी पत्नी एक हरा संकेत है । वह पहाड़ों के शिखर पर नाचता सूर्योदय का उत्सव है । वह पके हुए सिंदूरी आमों की मादक ख़ुशबू है । वह एक ऋचा है आकाश तक जाती हुई । वह जैसे सप्त स्वर में बजता हुआ एक पियानो है । वह जैसे फ़ौलाद और चाशनी की एक डोरी है गनेशी से बँधी हुई । वह जैसे पिघले हुए सोने की बहती नदी है । वह जैसे एक ताज़ा खिला फूल है गनेशी के जीवन की क्यारी में !
गनेशी अब अपनी पत्नी को ‘हनीमून’ के लिए हिल-स्टेशन पर ले गया है ।
वहाँ गुनगुनी धूप है, क्वाँरी हवा है, अपने वैवाहिक जीवन के ब्रह्मांड को बार-बार नापने की तमन्ना लिए अपने भीतर की धुरी पर टिका हुआ वह है और निश्छल मुस्कान की फुलझड़ी बिखेरती उसकी पत्नी है । गनेशी उन दोनो के जीवन के गुप्त झरने ढूँढ़ने निकला है ।
अचानक गनेशी को याद आता है कि आज वह डाकघर जा कर चिट्ठियाँ छाँटना तो भूल ही गया । वह अपनी पत्नी को वहीं छोड़कर डाकघर की ओर भागता है । पूरे गाँव में हर घर के लिए चिट्ठी आई है । केवल उसके पते पर हमेशा की तरह कोई चिट्ठी नहीं आई है …
और यहीं गनेशी की आँख खुल जाती है । वह बरगद के पास वाले चबूतरे पर औंधा पड़ा है । उसे लगता है जैसे उसका समय ज़मीन के मुँह में काँटे-सा धँसा है । अधजले मुर्दे-सा दिन अभी बाक़ी है । वह ख़ुद को एक एक बहुत बूढ़े पेड़-सा महसूस करता है, दर्द कर रहे हों जिसके हाथ-पैर । उसे अपना सपना याद आता है । उसे लगता है जैसे पकने से पहले ही सड़ना शुरू कर दिया हो उसके फल ने । जैसे उसके कई बीघे खेत में मुट्ठी भर धान भी नहीं हो पाया हो । उसे अपना जीवन शहद के ख़ाली छत्ते-सा लगने लगता है । उसके सूने अंतस् में सूखे बीज-सा उसका उदास अकेलापन बजने लगता है और वह अपनी स्थिति से आज़ाद होने के लिए छटपटाने लगता है ।
आख़िर सिर पर गमछा लपेट कर वह अपनी साइकिल उठाता है और राह चलते कुत्तों का हालचाल पूछता हुआ आगे बढ़ जाता है — अपनी उस पत्नी के बारे में सोचता हुआ जो उसके जीवन में नहीं हो कर भी ‘है’ और ‘होते हुए’ भी नहीं है …
आपने नोट किया होगा कि इस कहानी की शुरुआत कहानी के बीच तक चली आई है । इसलिए कहानी का बीच कहानी के अंत में आ गया है । कहानी का अंत अभी लिखा ही नहीं गया । इसलिए वह अंत फिर कभी ।
सुशांत सुप्रिय
A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद -201010 ( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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