More Hindi Kahaniya  Posts
mai zinda rahunga


दावत कभी की समाप्त हो चुकी थी, मेहमान चले गए थे और चाँद निकल आया था। प्राण ने मुक्त हास्य बिखेरते हुए राज की ओर देखा। उसको प्रसन्न करने के लिए वह इसी प्रकार के प्रयत्न किया करता था। उसी के लिए वह मसूरी आया था। राज की दृष्टि तब दूर पहाड़ों के बीच, नीचे जाने वाले मार्ग पर अटकी थी। हल्की चाँदनी में वह धुँधला बल खाता मार्ग अतीत की धुँधली रेखाओं की और भी धुँधला कर रहा था। सच तो यह है कि तब वह भूत और भविष्य में उलझी अपने में खोई हुई थी। प्राण के मुक्त हास्य से वह कुछ चौंकी। दृष्टि उठाई। न जाने उसमें क्या था, प्राण काँप उठा, बोला, ”तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?”

राज ने उस प्रश्न को अनसुना करके धीरे से कहा, ”आपके दाहिनी ओर जो युवक बैठा था, उसको आप अच्छी तरह जानते हैं?”

”किसको, वह जो नीला कोट पहने था?”

”हाँ, वही।”

”वह किशन के पास ठहरा हुआ है। किशन की पत्नी नीचे गई थी, इसीलिए मैंने उसे यहाँ आने को कह दिया था। क्यों, क्या तुम उसे जानती हो?”

”नहीं, नहीं, मैं वैसे ही पूछ रही थी।”

”मैं समझ गया, वह दिलीप को बहुत प्यार कर रहा था। कुछ लोग बच्चों से बहुत प्रेम करते हैं।”

”हाँ, पर उसका प्रेम ‘बहुत’ से कुछ अधिक था।”

”क्या मतलब?”

”तुमने तो देखा ही था, दिलीप उनकी गोद से उतरना नहीं चाहता था।”

प्राण ने हँसते हुए कहा, ”बच्चा सबसे अधिक प्यार को पहचानता है। उसका हृदय शरत् की चाँदनी से भी निर्मल होता है।”

तभी दोनों की दृष्टि सहसा दिलीप की ओर उठ गई। वह पास ही पलंग पर मख़मली लिहाफ़ ओढ़े सोया था। उसके सुनहरे घुँघराले बालों की एक लट मस्तक पर आ गई थी। गौर वर्ण पर उसकी सुनहरी छाया चन्द्रमा के प्रकाश के समान बड़ी मधुर लग रही थी। बच्चा सहसा मुसकराया। राज फुसफुसाई, ”कितना प्यारा है!”

प्राण बोला, ”ऐसा जान पड़ता है कि शैशव को देखकर ही किसी ने प्यार का आविष्कार किया था।”

दोनों की दृष्टि मिली। दोनों समझ गए कि इन निर्दोष उक्तियों के पीछे कोई तूफ़ान उठ रहा है, पर बोला कोई कुछ नहीं। राज ने दिलीप को प्यार से उठाया और अन्दर कमरे में ले जाकर लिटा दिया। मार्ग में जब वह कन्धे से चिपका हुआ था, तब राज ने उसे तनिक भींच दिया। वह कुनमुनाया, पर पलँग पर लेटते ही शांत हो गया। वह तब कई क्षण खड़ी-खड़ी उसे देखते रही। लगा, जैसे आज से पहले उसने बच्चे को कभी नहीं देखा था, पर शीघ्र ही उसका वह आनन्द भंग हो गया। प्राण ने आकर कहा, ”अरे! ऐसे क्या देख रही हो, राज?”

”कुछ नहीं।”

वह हँसा, ”जान पड़ता है, प्यार में भी छूत होती है।”

राज ने वहाँ से हटते हुए धीरे से कहा, ”सुनिए, अपने उन मित्र के मित्र को अब यहाँ कभी न बुलाइए।”

इन शब्दों में प्रार्थना नहीं थी, भय था। प्राण की समझ में नहीं आया। चकित-सा बोला, ”क्या मतलब?”

राज ने कुछ जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप बाहर चली गई और अपने स्थान पर बैठकर पहले की भाँति उस बल खाते हुए मार्ग को देखने लगी। नीचे कुलियों का स्वर बन्द हो गया था। ऊपर बादलों ने सब कुछ अपनी छाया में समेट लिया था। चन्द्रमा का प्रकाश भी उसमें इस तरह घुल-मिल गया था कि उनकी भिन्नता रहस्यमय हो उठी थी। राज को लगा, बादलों की वह धुंध उसके अन्दर भी प्रवेश कर चुकी है और उसकी शांति को लील गई है। सहसा उसकी आँखें भर आई और वह एक झटके के साथ कुर्सी पर लुढक़कर फूट-फूटकर रोने लगी। प्राण सब कुछ देख रहा था। वह न सकपकाया, न क्रुद्ध हुआ। उसी तरह खड़ा हुआ उस फूटते आवेग को देखता रहा। जब राज के उठते हुए निःश्वास कम हुए और उसने उठकर आँखें पोंछ डालीं, तब उसने कहा, ”दिल का बोझ उतर गया? आओ तनिक घूम आएं।”

राज ने भीगी दृष्टि से उसे देखा। एक क्षण ऐसे ही देखती रही। फिर बोली, ”प्राण, मैं जाना चाहती हूँ।”

”कहाँ?”

”कहीं भी।”
प्राण बोला, ”दुनिया को जानती हो। क्षण-भर पहले यहाँ सब कुछ स्पष्ट था, पर अब नहीं है, सब कुछ बादलों की धुंध में खो गया है।”

”मैं भी इस धुंध में खो जाना चाहती हूँ।”

प्राण ने दोनों हाथ हवा में हिलाए और गम्भीर होकर कहा, ”तुम्हारी इच्छा। तुम्हें किसी ने बाँधा नहीं है, जा सकती हो।”

राज उठी नहीं। उसी तरह बैठी रही और सोचती रही। रात आकर चली गई, उसका सोचना कम नहीं हुआ, बल्कि और भी गहरा हो उठा। उसने दिन-भर दिलीप को अपने से अलग नहीं किया। स्वयं ले जाकर माल पर झूले में झुला लाई। स्वयं घुमाने ले गई और फिर खिला-पिलाकर सुलाया भी स्वयं। बहुत देर तक लोरी सुनाई, थपथपाया, सहलाया। वह सो गया, तो रोयी और रोते-रोते बाहर बरामदे में जाकर अपने स्थान पर बैठ गई। वही चन्द्रमा का धुँधला प्रकाश, वही बादलों की धुंध, वही प्रकृति की भाँति ऊपर अपूर्व शांति और अन्दर तूफान की गरज। प्राण ने आज राज को कुछ भी न कहने का प्रण कर लिया था। वह उसकी किसी इच्छा में बाधा नहीं बना। अब भी जब वह दृष्टि गड़ाये उस बल खाते मार्ग को ढूँढने की विफल चेष्टा कर रही थी, वह कुर्सी की पीठ पर हाथ रखे हुए खड़ा था। तभी लगा कोई जीने में आ रहा है। राज एकाएक बोल उठी, ”वे आ गए।”

”कौन?”

”आपके मित्र के मित्र।”

वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि वे मित्र बरामदे में आते हुए दिखाई दिए। प्राण ने देखा- वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ एक पुरुष तथा एक नारी भी है। दोनों सभ्य लगते हैं। नारी विशेष सुन्दर है, पर इस समय वे अतिशय गम्भीर हैं, उनकी आँखें बताती हैं कि वे व्यग्र भी हैं। प्राण उन्हें देखकर काँपा तो, पर आगे बढक़र उसने उनका स्वागत भी किया। मुसकराकर बोला, ”आइए, आइए, नमस्ते। किशोर नहीं आए?’

”जी, किशोर नहीं आ सके।”

”बैठिए, आइए, आप इधर आइए।”

बैठ चुके तो प्राण ने अपरिचितों की ओर देखकर पूछा, ”आपका परिचय।”
”ये मेरी बहन हैं और ये बहनोई।”

”ओह!” प्राण मुसकराया, हाथ जोड़े, दृष्टि मिली, जैसे कुछ हिला हो। फिर भी संभलकर बोला, ”आप आजकल कहाँ रहते हैं?”

मित्र ने दीर्घ निःश्वास लेकर कहा, ”कहाँ रहते। विधाता ने ऐसा उखाड़ा है कि कहीं जमते ही नहीं बनता।”

प्राण बोला, ”हाँ भाई। वह तो जैसा हुआ सभी जानते हैं, पर उसकी चर्चा किससे करें।”
और फिर मुड़कर राज से, जो बुत बनी बैठी थी, कहा, ”अरे भई, चाय-वाय तो देखो।”

मित्र एकदम बोले, ”नहीं, नहीं। चाय के लिए कष्ट न करें। इस वक्त तो एक बहुत आवश्यक काम से आए हैं।”

प्राण बोलो, ”कहिए।”

मित्र कुछ झिझके। प्राण ने कहा, ”शायद एकांत चाहिए।”

”जी।”
”आइए उधर बैठेंगे।”

वह उठा ओर कोने में पड़ी हुई एक कुरसी पर जा बैठा। मित्र भी पास की दूसरी कुर्सी पर बैठ गए। एक क्षण रुककर बोले, ”क्षमा कीजिए, आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। है तो वह बेहूदा ही।”

”कोई बात नहीं,” प्राण मुसकराया, ”प्रश्न पूछना कभी बेहूदा नहीं होता।”

मित्र ने एकदम सकपकाकर पूछा, ”दिलीप आपका लडक़ा है?”

प्राण का हृदय धक्-धक् कर उठा। ओह, यह बात थी। उसने अपने-को सँभाला और निश्चित स्वर में कहा, ”जी हाँ! आज तो वह मेरा ही है!”

”आज तो?”

”जी हाँ, वह सदा मेरा नहीं था।”

”सच?”

”जी हाँ! क़ाफ़िले के साथ लौटते हुए राज ने उसे पाया था।”

”क्या”, मित्र हर्ष और अचरज से काँप उठे, ”कहाँ पाया था?”

”लाहौर के पास एक ट्रेन में।”

”प्राण बाबू, प्राण बाबू! आप नहीं जानते यह बच्चा मेरी बहन का है। मैं उसे देखते ही पहचान गया था। ओह, प्राण बाबू! आप नहीं जानते, उनकी क्या हालत हुई।” और उछलकर उसने पुकारा, ”भाई साब! रमेश मिल गया।”

और फिर प्राण को देखकर कहा, ”आप प्रमाण चाहते हैं? मेरे पास उसके फोटो हैं। यह देखिए।”

और उसने जेब से फोटो पर फोटो निकालकर सकपकाये हुए प्राण को चकित कर दिया। क्षण-भर में वहाँ का दृश्य पलट गया। रमेश के माता-पिता पागल हो उठे। माँ ने तड़पकर कहा, ”कहाँ है। रमेश कहाँ है?”

राज ने कुछ नहीं देखा। वह शीघ्रता से अन्दर गई और दिलीप को छाती से चिपकाकर फफक उठी। दूसरे ही क्षण वे सब उसके चारों ओर इकट्ठे हो गए। वे सब उद्विग्न थे, पर प्राण अब भी शांत था। उसने धीरे से राज से कहा, ”राज, दिलीप की माँ आ गई है।”

”उसकी माँ!” राज ने फफकते हुए कहा, ”तुम सब चले जाओ। तुम यहाँ क्यों आए? दिलीप मेरा है। मैं उसकी माँ हूँ।”

दिलीप (रमेश) की माँ रोती हुई बोली, ”सचमुच, माँ तुम्हीं हो। तुमने उसे पुनर्जन्म दिया है।”
सुनकर राज काँप उठी। उसने दृष्टि उठाकर पहली बार उस माँ को देखा और देखती रह गई। तब तक दिलीप जाग चुका था और उस चिल्ल-पों में घबराकर, किसी भी शर्त पर, राज की गोद से उतरने को तैयार नहीं था। वह नवागन्तुकों को देखता और चीख पड़ता।

साल-भर पहले जब राजा ने उसे पाया था, तब वह पूरे वर्ष का भी नहीं था। उस समय सब लोग प्राणों के भय से भाग रहे थे। मनुष्य मनुष्य का रक्त उलीचने में होड़ ले रहा था। नारी का सम्मान और शिशु का शैशव सब पराभूत हो चुके थे। मनुष्य का मनुष्यत्व ही नष्ट हो चुका था। भागते मनुष्यों पर राह के मनुष्य टूट पड़ते और लाशों का ढेर लगा देते, रक्त बहता और उसके साथ ही बह जाती मानवता। ऐसी ही एक ट्रेन में राज भी थी। हमला होने पर जब वह संज्ञाहीन-सी अज्ञात दिशा की ओर भागी, तो एक बर्थ के नीचे से अपने सामान के भुलावे में वह जो कुछ उठाकर ले गई, वही बाद में दिलीप बन गया। यह एक अद्भुत बात थी। अपनी अंतिम संपत्ति खोकर उसने एक शिशु को पाया, जो उस रक्त-वर्षा के बीच बेख़बर सोया हुआ था। उसने कैंप में आकर जब उस बालक को देखा तो अनायास ही उसके मुँह से निकला, ”मेरा सब कुछ मुझसे छीनकर आपने यह कैसा दान दिया है प्रभु।” लेकिन तब अधिक सोचने का अवसर नहीं था। वह भारत की और दौड़ी। मार्ग में वे अवसर आए, जब उसे अपने और उस बच्चे के बीच किसी एक को चुनना था, पर हर बार वह प्राणों पर खेलकर उसे बचा लेने में सफल हुई। मौत भी जिस बालक को उससे छीनने में असफल रही, वही अब कुछ क्षणों में उससे अलग हो जाएगा, क्योंकि वह उसका नहीं था, क्योंकि वह उसकी माँ नहीं थी। नहीं, नहीं, दिलीप उसका है।
और वह फफक-फफककर रोने लगी। प्राण ने और भी पास आकर धीरे से शांत स्वर में कहा, ”राज! माँ बनने से भी एक बड़ा सौभाग्य होता है और वह है किसी के मातृत्व की रक्षा।”

”नहीं, नहीं…” वह उसी तरह बोली, ”मैं वह सौभाग्य नहीं चाहती।”

”सौभाग्य तुम्हारे न चाहने से वापस नहीं लौट सकता राज, पर हाँ! तुम चाहो तो सौभाग्य को दुर्भाग्य में पलट सकती हो।”

राज साहस प्राण की ओर देखकर बोली, ”तुम कहते हो, मैं इसे दे दूँ?”

”मैं कुछ नहीं कहता। वह उन्हीं का है। तुम उनका खोया लाल उन्हें सौंप रही हो इस कर्तव्य में जो सुख है, उससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा! उस सौभाग्य को क्षणिक कायरता के वश होकर ठुकराओ नहीं राज।”

राज ने एक बार और प्राण की ओर देखा, फिर धीरे-धीरे अपने हाथ आगे बढ़ाए और दिलीप को उसकी माँ की गोदी में दे दिया। उसके हाथ काँप रहे थे, होंठ काँप रहे थे। जैसे ही दिलीप को उसकी माँ ने छाती से चिपकाया, राज ने रोते हुए चिल्लाकर कहा,...

”जाओ। तुम सब चले जाओ, अभी इसी वक्त।”

प्राण ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, बल्कि जीने तक उनको छोडऩे आया। उन लोगों ने बहुत कुछ कहना चाहा, पर उसने कुछ नहीं सुना। बोला, ”मुझे विश्वास है, बच्चा आपका है, वह आपको मिल गया। आपका-सा सौभाग्य सबको प्राप्त हो, लेकिन मेरी एक प्रार्थना है।”

”जी, कहिए। हमें आपकी हर बात स्वीकार है।”

प्राण ने बिना सुने कहा, ”कृपा कर अब आप लोग इधर न आएँ।”

वे चौंके, ”क्या?”

”जी, आपकी बड़ी कृपा होगी।”

”पर सुनिए तो…।”

प्राण ने कुछ न सुना और अगले दिन मसूरी को प्रणाम करके आगे बढ़ गया। राज की अवस्था मुरदे जैसी थी। वह पीली पड़ गई थी। उसके नेत्र सूज गए थे। प्राण ने उस क्षण के बाद फिर एक शब्द भी ऐसा नहीं कहा, जो उसे दिलीप की याद दिला सके, लेकिन याद क्या दिलाने से आती है? वह तो अंतर में सोते की भाँति उफनती है, राज के अंतर में भी उफनती रही। उसी उफान को शांत करने के लिए प्राण मसूरी से लखनऊ आया। वहाँ से कलकत्ता और फिर मद्रास होता हुआ दिल्ली लौट आया। दिन बीत गए, महीने भी आए और चले गए। समय की सहायता पाकर राज दिलीप को भूलने लगी। प्राण ने फिर व्यापार में ध्यान लगाया, पर साथ ही उसके मन में एक आकांक्षा बनी रही। वह राज को फिर शिशु की अठखेलियों में खोया देखना चाहता था। वह कई बार अनाथालय और शिशु-गृह गया, पर किसी बच्चे को घर न ला सका। जैसे ही वह आगे बढ़ता कोई अन्दर से बोल उठता, ‘न जाने कौन कब आकर इसका भी माँ-बाप होने का दावा कर बैठे।”

और वह लौट आता। इसके अलावा बच्चे की चर्चा चलने पर राज को दुख होता था। कभी-कभी तो दौरा भी पड़ जाता था। वह अब एकांत प्रिय, सुस्त और अन्तर्मुखी हो चली थी। प्राण जानता था कि वह प्रभाव अस्थायी है। अंतर का आवेग इस आवरण को बहुत शीघ्र उतार फेंकेगा। नारी की जड़ें जहाँ हैं, उसके विपरीत फल कहाँ प्रकट हो सकता है? वह एक दिन किसी बच्चे को घर ले आएगा और कौन जानता है तब तक…।

वह इसी उधेड़बुन में था कि एक दिन उसने होटल से लौटते हुए देखा कि एक व्यक्ति उन्हें घूर-घूरकर देख रहा है। उसने कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। लोग देखा ही करते हैं। आज के युग का यह फैशन है, उसके पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं। जब-तब अवसर पाकर छत की दीवार से झाँककर राज को देखा करते हैं। राज ने कई बार उनकी इस हरकत की शिकायत भी की थी। लेकिन अगले दिन, फिर तीसरे दिन, चौथे दिन यहाँ तक कि प्रतिदिन वही व्यक्ति उसी तरह उनका पीछा करने लगा। अब प्राण को यह बुरा लगा। उसने समझा, इसमें कोई रहस्य है, क्योंकि वह व्यक्ति राज के सामने कभी नहीं पड़ता था और न राज ने अब तक उसे देखा था। कम से कम वह इस बात को नहीं जानता था। यही सब कुछ सोचकर प्राण ने उस व्यक्ति से मिलना चाहा। एक दिन वह अकेला ही होटल आया और उसने उस व्यक्ति को पूर्वत अपने स्थान पर देखा। प्राण ने सीधे जाकर उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। वह व्यक्ति एकदम काँप उठा, बोला, ”क्या, क्या है?”

प्राण ने शांत भाव से कहा, ”यही तो मैं आपसे पूछने आया हूँ।”

अचरज से वह व्यक्ति जिस तरह काँपा, उसी तरह एकदम दृढ़ होकर बोला, ”तो आप समझ गए। क्षमा करिए, मैं स्वयं आपसे बात करने वाला था।”

”अब तक क्यों नहीं कर सके?”

उसने उसी तरह कहा, ”क्योंकि मैं पूर्ण आश्वस्त नहीं था और आप जानते हैं, आज के युग में ऐसी-वैसी बातें करना मौत को बुलाना है।”

प्राण उसकी वाणी से आश्वस्त तो हुआ, पर उसका हृदय धक्-धक् कर उठा। उसने कहा, ”आप ठीक कहते हैं, पर अब आप निस्संकोच होकर जो चाहें कह सकते हैं।”

वह बोला, ”बात ऐसी ही है। आप बुरा न मानिए।”

”आप कहिए।”
वह तनिक झिझका, फिर शीघ्रता से बोला, ”आपके साथ जो नारी रहती है, वह आपकी कौन है?”

”आपका मतलब?”

”जी…।”

प्राण सँभला, बोला, ”वह मेरी सब कुछ है और कुछ भी नहीं है।”

”जी, मैं पूछता था क्या वे आपकी पत्नी हैं?”

”मेरी पत्नी…?”

”जी।”

”नहीं।”

”नहीं?”

”जी हाँ।”

”आप सच कह रहे हैं?” उसकी वाणी में अचरज ही नहीं, हर्ष भी था।
”जी हाँ! मैं सच कहता हूँ। अग्नि को साक्षी करके मैंने कभी उससे विवाह नहीं किया।”

”फिर?”
”लाहौर से जब भागा था, तब मार्ग में एक शिशु के साथ उसे मैंने संज्ञाहीन अवस्था में एक खेत में पाया था।”

”तब आप उसे अपने साथ ले आए।”

”जी हाँ।”

”फिर क्या हुआ?”

”होता क्या? तब से वह मेरे साथ है।”

”लोग उसे आपकी पत्नी समझते हैं।”

”यह तो स्वाभाविक है। पुरुष के साथ इस तरह जो नारी रहती है, वह पत्नी ही होगी, इससे आगे आज का आदमी क्या सोच सकता है? पर आप ये सब बातें क्यों पूछते हैं? क्या आप उसे जानते हैं?”

”जी,” वह काँपा, बोला, ”वह…वह मेरी पत्नी हैं।”

”आपकी पत्नी,” प्राण सिहर उठा।

”जी।”

”और आप उसे चोरों की भाँति ताका करते हैं?”

अब उसका मुँह पीला पड़ गया और नेत्र झुक गए, पर दूसरे ही क्षण न जाने क्या हुआ, उसने एक झटके के साथ गरदन ऊँची की, बोला, ”उसका एक कारण है। मैं उसे छिपाऊँगा नहीं। उन मुसीबत के क्षणों में मैं उसकी रक्षा नहीं कर सका था।”

प्राण न जाने क्यों हँस पड़ा, ”छोडक़र भाग गए थे। अक्सर ऐसा होता है।”

”भागा तो नहीं था, पर प्राणों पर खेलकर उस तक आ नहीं सका था।”

”वह जानती है?”
”नहीं कह सकता।” ”आपको भय है कि वह जानती होगी?”

”भय तो नहीं, पर ग्लानि अवश्य है।”

प्राण के भीतर के मन को जैसे कोई धीरे-धीरे छुरी से चीरने लगा हो, पर ऊपर से वह उसी तरह शांत स्वर में बोला, ”तो राज आपकी पत्नी है, सच?”

उस व्यक्ति ने रुँधे कण्ठ से कहा, ”कैसे कहूं। मैंने उसको ढूँढने के लिए क्या नहीं किया? सभी कैंपों में, रेडियो स्टेशन पर, पुलिस में – सभी जगह उसकी रिपोर्ट मौजूद है।”

प्राण बोला, ”आप उसे ले जाने को तैयार हैं?”

वह झिझका नहीं, कहा, ”जी इसीलिए तो रुका हूँ।”

”आपको किसी प्रकार का संकोच नहीं?”

”संकोच?”, उसने कहा, ”संकोच करके मैं अपने पापों को और नहीं बढ़ाना चाहता। महात्मा जी…”

”तो फिर आइए,” प्राण ने शीघ्रता से उसकी बात काटते हुए कहा, ”मेरे साथ चलिए।”

”अभी?”

”इसी वक्त। आप कहाँ रहते हैं?”

”जालंधर।”

”काम करते हैं?”

”जी हाँ। मुझे स्कूल में नौकरी मिल गई है।”

”आपके बच्चे तो दोनों मारे गए थे?”

”जी, एक बच गया था।”

”सच?”
”जी, एक बच गया था।”

”सच?”
”जी, वह मेरे पास है।”

प्राण का मन अचानक हर्ष से खिल उठा। शीघ्रता से बोला, ”तो सुनिए, राज घर पर है। आप उसे अपने साथ ले जाइए। मैं पत्र लिखे देता हूँ।”

”आप नहीं चलेंगे?”

”जी नहीं। मैं बाहर जा रहा हूँ। लखनऊ में एक आवश्यक कार्य है। तीन-चार दिन में लौटूँगा, आप उसे ले जाइएगा। कहना उसका पुत्र जीवित है। मुझे देखकर वह दुखी होगी। समझे न।”

”समझ गया।”

”आप भाग्यवान हैं। मैं आपको बधाई देता हूँ और आपके साहस की प्रशंसा करता हूँ।”

वह व्यक्ति कृतज्ञ, अनुगृहीत कुछ जवाब दे कि प्राण ने एक परचा उसके हाथ में थमाया और बिजली की भाँति गायब हो गया।

पत्र में लिखा था :
“राज!
बहादुर लोग गलती कर सकते हैं, पर धोखा देना उनकी प्रकृति के विरुद्ध है। फिर भी दो शब्द मुझे तुम्हारे पास लाने को पर्याप्त हैं। प्रयत्न करना उनकी आवश्यकता न पड़े। मुझे जानती हो, मरने तक जीता रहूँगा। -प्राण”

यह व्यक्ति ठगा-सा बहुत देर तक वहीं खड़ा रहा। कंगाल की फटी झोली में कोई रत्न डाल गया हो, ऐसी उसकी हालत थी, पर जन्म से तो वह कंगाल नहीं था। इसलिए साहस ने उसे धोखा नहीं दिया और वह प्राण के बताए मार्ग पर चल पड़ा।

पूरे पन्द्रह दिन बाद प्राण लौटा। जब तक उसने द्वार को नहीं देखा, उसके प्राण सकते में आए रहे। जब देखा कि द्वार बन्द है और उसका चिर-परिचित ताला लगा है तो उसके प्राण तेज़ी से काँपे। किवाड़ खोलकर वह ऊपर चढ़ता ही चला गया। आगे कुछ नहीं देखा। देख ही नहीं सका। पालना पड़ा था, उससे ठोकर लगी और वह पलंग की पट्टी से जा टकराया। मुख से एक आह निकली। माथे में दर्द का अनुभव हुआ। खून देखा, फिर पालना देखा, फिर पलंग देखा, फिर घर देखा। सब कहीं मौन का राज्य था। प्रत्येक वस्तु पूर्वत: अपने स्थान पर सुरक्षित थी। प्राण के मन में उठा, पुकारे – ‘राज!’

पर वह काँपा…राज कहाँ है? राज तो चली गई। राज का पति आया था। राज का पुत्र जीवित है। सुख भी कैसा छल करता है। जाकर लौट आता है। राज को पति मिला, पुत्र मिला। दिलीप को माँ-बाप मिले। और मुझे…मुझे क्या मिला…?

उसने गरदन को जोर से झटका दिया। फुसफुसाया-ओह मैं कायर हो चला। मुझे तो वह मिला, जो किसी को नहीं मिला।

तभी सहसा पास की छत पर खटखट हुई, राज को घूरने वाले पड़ोसी ने उधर झाँका। प्राण को देखा, तो गम्भीर होकर बोला, ”आप आ गए?”

”जी हाँ।”

”कहाँ चले गए थे?”

”लखनऊ।”

”बहुत आवश्यक कार्य था क्या? आपके पीछे तो मुझे खेद है…।”

”जी, क्या?”

”आपकी पत्नी…।”

”मेरी पत्नी?”

”जी, मुझे डर है वह किसी के साथ चली गई।”

”चली गई? सच। आपने देखा था?”

”प्राण बाबू, मैं तो पहले ही जानता था। उसका व्यवहार ऐसा ही था। कोई पन्द्रह दिन हुए आपके पीछे एक व्यक्ति आया था। पहले तो देखते ही आपकी पत्नी ने उसे डाँटा।”

”आपने सुना?”
”जी हाँ। मैं यहीं था। शोर सुनकर देखा, वह क्रुद्ध होकर चिल्ला रही है, ‘जाओ, चले जाओ। तुम्हें किसने बुलाया था? तुम क्यों आए? मैं उन्हें पुकारती हूँ?’ ”

”सच, ऐसा कहा?

”जी हाँ।”

”फिर?”

”फिर क्या प्राण बाबू। वे बाबू साहब बड़े ढीठ निकले। गए नहीं। एक पत्र आपकी पत्नी को दिया, फिर हाथ जोड़े। पैरों में पड़ गए।”

”क्या यह सब आपने देखा था?”

”जी हाँ, बिलकुल साफ़ देखा था।”

”फिर?”

”फिर वे पैरों में पड़ गए, पर आपकी पत्नी रोती रही। तभी अचानक उसने न जाने क्या कहा। वह काँपकर वहीं गिर पड़ी। फिर तो उसने, क्या कहूँ, लाज लगती है। जी में तो आया कि कूदकर उसका गला घोटा दूँ, पर मैं रुक गया। दूसरे का मामला है। आप आते ही होंगे। रात तक राह देखी, पर आप नहीं आए। सवेरे उठकर देखा, तो वे दोनों लापता थे।”

”उसी रात चले गए?”

”जी हाँ।”

प्राण ने साँस खींची, ”तो वे सच्चे थे, बिलकुल सच्चे।”

पड़ोसी ने कहा, ”क्या?”

”जी हाँ। उन्होंने वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था।”

और फिर अचरज से बुत बने पड़ोसी की ओर देखकर बोला, ”वे भाई, राज के पति थे।”
”राज के पति?” चकित पड़ोसी और भी अचकचाया।

”जी हाँ। पंजाब से भागते हुए हम लोगों के साथ जो कुछ हुआ, वह तो आप जानते ही हैं। राज को भी मैंने लाशों के ढेर में से उठाया था; वह तब जानती थी कि उसके पति मर गए हैं, इसीलिए वह मेरे साथ रहने लगी।”

पड़ोसी अभी तक अचकचा रहे थे, बोले, ”आपके साथ रहने पर भी उन्हें राज को ले जाने में संकोच नहीं हुआ?”

प्राण ने कहा, ”सो तो आपने देखा ही था।”

वह क्या कहे, फिर भी ठगा-सा बोला, ”आपका अपना परिवार कहाँ है?”

”भागते हुए मेरी पत्नी और माँ-बाप दरिया में बह गए। बच्चे एक-एक करके रास्ते में सो गए।”

”भाई साहब!” पड़ोसी जैसे चीख पड़ेगा, पर वे बोल भी न सके। मुँह उनका खुले का खुला रह गया और दृष्टि स्थिर हो गई।

– विष्णु प्रभाकर

...
...



Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Punjabi Graphics

Indian Festivals

Love Stories

Text Generators

Hindi Graphics

English Graphics

Religious

Seasons

Sports

Send Wishes (Punjabi)

Send Wishes (Hindi)

Send Wishes (English)